Monday, October 15, 2018

ग़ज़ल - दर्द की रात को तुमने कभी घटते देखा

फूल के जिस्म से तितली को लिपटते देखा 
रंग और रूप को आपस में सिमटते देखा 

याद आया है मुझे वस्ल का आलम अपना 
जब भी लहरों को किनारों से लिपटते देखा 

दर्द के मारे हुए लोगों से मैं पूछती हूँ 
दर्द की रात को तुमने कभी घटते देखा 

आदमियत ने मेरी खून के आंसू रोये 
जब भी मज़्लूम पे ज़ालिम को झपटते देखा 

अबके भी नाम थे सोहकारों के फसलों पे लिखे 
अब के भी फ़सलों को सोहकारों में बंटते देखा 

जिनके हाथों में रहा अम्न का परचम सोनी 
उनके हाथों ही से इंसान को कटते देखा 


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