गुफ़्तगू को बदल के देखते हैं
उसके लहज़े मैं ढल के देखते हैं
माहिरे हुस्न भी मुझे अब तो
सोच अपनी बदल के देखते हैं
राज़ खुश्बु का जानने के लिये
लोग गु्ल को मसल के देखते हैं
कितनी दुश्वार राहे उल्फ़त है
दो क़दम हम भी चल के देखते हैं
हासिले इश्क हाथ मलना है
तो चलो हाथ मल के देखते हैं
शौलये तूर है अनीता वो
लोग उसको सम्भल के देखते हैं
Monday, July 14, 2008
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