Wednesday, August 13, 2008

ठूंठ ( कविता )

खड़ी थी मैं ना जाने कब से उस घने पेड़ तले
मैंने विश्वास किया था उसके लाखों पत्तों के स्नेह की ओट का
जो मुझे अपनेपन का अहसास कराती थी.
मगर मे अन्जान ही रह गयी
पता नही कब से रोज़ कुछ पत्ते
बिना पतझड़ और बिना हवा के ही गिरते रहे
मैंने विश्वास ही नहीं किया कि मेरा विश्वास और पत्ते यूं गिर रहे होंगे
आज अचानक जब कड़ी धूप ने मुझे झुलसाया
तो मैंने देखा कि मैं किसी घने पेड़ के नीचे नहीं
बल्कि एक ठूंठ के नीचे खडी़ हूं