Sunday, October 14, 2018

ग़ज़ल -उकता के लड़कियों को न घर से निकालिये

ससुराल से दुखी थे मगर मुस्कुरा लिए 
पूछा जो माँ  ने हाल तो आँसू छुपा लिए 

ज़ेवर जो हो कोई तो उजलवा के पहन लें 
तकदीर हो सियाह तो  कैसे उजालिये 

रिश्ते हों बेटियों के तो कुछ देखभाल कर 
उकता के लड़कियों को न घर से निकालिये 

ताबीरें आप ढूंढ़ने आये हैं देर से 
अपने तमाम ख़्वाब हमीने जला लिए 

अब ये भी चाहते हैं मुहब्बत की बात हो 
 पहले तो तीर तंज़ के तुमने चला लिए 

 

ग़ज़ल - क्षमा मैं मांगती उससे अगर ख़ता करती

मैं कैसे अपनी कहानी की इप्तिदा करती 
तुम्हें ना माँगती रब से तो और क्या करती 

मेरी हया पे तुम्ही कल को तब्सरा करते 
जो लड़की हो के भी मैं अर्ज़े मुद्दुआ करती 

मैं सच कहूं मुझे तारीफ़ अच्छी लगती है 
वो चाँद कहते मुझे और मैं सुना करती      

दिनों के बाद वो लौटा तो खूब प्यार किया 
अब ऐसे प्यार के मौसम में क्या गिला करती 

बना के फूल वो ले जाता मुझको दफ़्तर में 
तमाम  दिन भी उसे ख़ुशबुएं दिया करती  

अब उसका काम है मुझको मना के ले जाना 
क्षमा मैं मांगती  उससे अगर ख़ता करती 

ये फूल मेरे लिए ही तो रोज़ खिलते हैं 
मैं इनसे प्यार ना करती तो और क्या करती 

न बाप ज़िंदा न घर में जहेज़ का सामान 
वो अपनी बच्ची को किस तरह से विदा करती 

वो भाई बहनों की रोटी की आस है सोनी 
वो क़त्ल करके उन्हें किस तरह विदा करती 



ग़ज़ल - सजा रही हूँ मैं आँसूं अभी तो कागज़ पर

 हसीन अजनबी आँखों का  ख़्वाब होने में 
लगेगा वक्त मुझे बेनक़ाब  होने में 

ज़रा सा दिल की लगी का भी हाथ होता है 
किसी के जीतने में कामयाब होने में 

सजा रही हूँ मैं आँसूं अभी तो कागज़ पर 
अभी तो वक़्त लगेगा किताब होने में 

सफर बहार का आसान ना समझना तुम 
बहुत से ज़ख़्म मिलेंगे गुलाब  होने में 

वो देख ले मेरे घर आके चांदनी का पड़ाव 
जिसे भी शक हो मेरे माहताब होने में 

ये जानते हुए वो आँख मूँद लेते हैं 
है किसका हाथ फ़िज़ा के ख़राब होने में 

हज़ारों आग के दरिया हैं दरमियाँ सोनी 
बहुत समय  है मुझे आफ़ताब होने में 



ग़ज़ल - धूप का आकाश जैसे माँ का आँचल हो गया

देखकर मुझको ह्रदय मौसम का चंचल हो गया 
होश खो बैठे हैं तारे चाँद पागल हो गया 

जाने कैसे प्यार उसका बन गया बिंदिया मेरी 
जाने कैसे वो मेरी आँख का काजल हो गया 

उससे था जन्मों का रिश्ता साथ कैसे छूटता 
मैं जो नदिया बन गयी वो प्यासा बादल हो गया 

फिर दुखों की राह में माँ की दुआ काम आ गयी 
धूप का आकाश जैसे माँ का आँचल हो गया 

आपके स्पर्श ने मुझको मुकम्मल कर दिया 
आपके छूने से सारा जिस्म संदल हो गया 

वो थे जब सोनी तो दिल का ये नगर आबाद था 
वो गए तो घर मेरा वीरान जंगल हो गया 

ग़ज़ल - औरत की ज़िन्दगी है ये इज़्ज़त की ओढ़नी

औरत की ज़िन्दगी है ये इज़्ज़त की ओढ़नी 
सिन्दूर प्यार का है मुहब्बत की ओढ़नी 

रेशम की ओढ़नी से है जोगन को क्या गरज़ 
 जब सर पे ओढ़ ली तेरी निस्बत१ की ओढ़नी 

बेटी बहन का माँ का बड़प्पन इसी में है 
उतरे न कभी सर से शराफ़त की ओढ़नी 

क़ुरबत की धुप खिलती है बारिश के बाद ही 
अश्कों से भीग जाने दे क़ुरबत२  की ओढ़नी 

हम बेघरों का दर्द क्या महसूस हो उन्हें 
सर पर पड़ी है जिनके ज़रा छत की ओढ़नी 

सुनते हैं रंग लाती है तब इश्क़  की हिना 
जब डूबती है ख़ून में चाहत की ओढ़नी 

सोनी बड़े बड़ों का ये अंजाम देख ले 
आख़िर में ओढ़ लेते हैं तुर्बत३  की ओढ़नी 

निस्बत१ - सम्बन्ध 
क़ुरबत२ - निकटता 
तुर्बत३ -  कब्र , समाधि 

ग़ज़ल - फूल हूँ मुझको महक जाने दे

ए हवा यार तलक जाने दे 
फूल हूँ मुझको महक जाने दे   

दिल की बेताबियाँ उसपर भी खुलें 
दिल धड़कता है धड़क जाने दे 

रोक पलकों पे ना अपने ऑंसू 
भर गए जाम छलक जाने दे 

इश्क़ में दोनों जलेंगे मिलकर 
आग कुछ और दहक जाने दे 

ज़ख्म इंसानों के भर दे मौला 
ये ज़मी फूलों से ढक जाने दे

देख खिड़की में खड़ी हूँ कब से 
चाँद अब छत पे चमक जाने दे 

तू फरिश्ता नहीं इंसा बन जा 
ख़ुद को थोड़ा सा बहक जाने दे 

ए मेरे कृष्ण तेरी राधा को 
एक ही पल को थिरक जाने दे 

लोग ख़ुद  तोड़ने आ जायेंगे 
प्यार का फल ज़रा पक जाने दे 

ग़ज़ल - दिल अगर नहीं मिलते दोस्ती अधूरी है

इंतज़ार मैं तेरे रात भी अधूरी है 
चाँद ना मुकम्मल है चाँदनी अधूरी है 

हँसते गाते शब्दों पर ओस पड़ गयी जैसे 
तुम नहीं तो लगता है शायरी अधूरी है 

उसने ये कहा मुझसे मैंने ये कहा उससे 
तेरे बिन अरे जानम ज़िन्दगी अधूरी है 

आओ साथ दो मेरा मद्ध्यम से पंचम तक 
इन महकती सांसों की रागिनी अधूरी है 

हाथ जब मिलाना हो दिल भी साथ रख लेना
दिल अगर नहीं मिलते दोस्ती अधूरी है 

फूल बनके महकेगी क्या हमारी आज़ादी 
ये काली तो बरसों से अधखिली अधूरी है 

ख़ूने दिल जला सोनी प्यार के चराग़ों में 
रौशनी तो है लेकिन रौशनी अधूरी है 







ग़ज़ल सोनी सब इंसानों की है इक जाती

पूछ रही है दीपक से हंस कर बाती 
हमको क्यूँ रातों को नींद नहीं आती 

उसके आगे मैं यूँ घबरा जाती हूँ 
जैसे शहर मैं घबरा जाये देहाती 

मेरी वफ़ाएं अब भी हरी भरी सी हैं 
सूख गयी है घास की जो थी बरसाती 

जीवन भर रोयेगी मुफ़लिस की बेटी 
घर तक आकर लौट गए हैं बाराती 

आस की हांडी  तोड़ दी माँ ने तंग आकर 
झूठ से कब तक भूखे बच्चे बहलाती 

मुल्कों मुल्कों चोंच पसारे फिरती है 
सोने की चिड़िया भी बन गयी ख़ैराती 

हमने उनको बाँट दिया है खानों में 
सोनी सब इंसानों की है इक जाती  ग़ज़ल 

ग़ज़ल - जिस्म के ये व्योपारी कब सहारा देते हैं

जिस्म के ये व्योपारी कब सहारा देते हैं 
पहले माँग भरते हैं फिर गुज़ारा  देते  हैं 

ये हमारे आँसू भी कम नहीं चरागों से
जब चराग़ बुझते हैं ये सहारा देते हैं 

पुरसुकून शहरों  में आग ख़ुद नहीं लगती 
सरफिरी हवाओँ को वो इशारा देते हैं 

उनकी राजनीती का कुछ पता नहीं चलता 
कब शरारा देते हैं कब सितारा देते हैं 

इन सियासी लोगों की फ़ितरतों में शामिल है 
पहले घर जलाते हैं फिर सहारा देते हैं 

हमने छोड़ रक्खा है फैसला बुज़ुर्गों पर 
देखिये हमें किस दिन हक़ हमारा देते हैं 

ग़ज़ल

हर तरफ भीड़ है और भीड़ का छटना  मुश्किल 
भीड़ में रह के तेरे नाम को रटना  मुश्किल 

दर्द की रात  के दामन पे है अश्कों का हुजूम 
दर्द की रात  के दामन का सिमटना मुश्किल 

प्यार के लफ्ज़ में  इक़रारे  वफ़ा होता है 
हर किसी के लिए इस लफ्ज़ का रटना मुश्किल 

एक हो जाएँ अगर भूख के मारे इन्सां 
 फिर तो  इन फ़सलों का धनवानों में बटना मुश्किल 

बदगुमानी की किसी शख़्स के दिल पर सोनी 
धुंध छा जाये तो फिर धुंध का छटना मुश्किल