Sunday, September 23, 2018

डॉ अनीता सोनी
एम. ए. पीएचडी  हिंदी साहित्य
(अंतर्राष्ट्रीय कवियत्री एवं शायरा )

ग़ज़ल 

तुम्हारी याद को अश्कों में ढाल  बैठी हूँ 
दहकते शोले को पानी में डाल बैठी हूँ 

मैं अपने जिस्म पे ज़ख्मों की ओढ़ कर चादर 
तुम्हारे ज़ुल्म  की ज़िंदा मिसाल बैठी हूँ 

ये छाले चेहरे पे यूँ ही नहीं पड़े मेरे 
किसी के हिज़्र में आँसू  उबाल बैठी हूँ 

न टाल मुझको मेरे चारागर ख़ुदा के लिए 
मैं ज़िंदगानी का लेकर सवाल बैठी हूँ 

हरीफ़े अम्न न पथराव कर दे ए  सोनी 
मैं खेल खेल में पत्थर उछाल बैठी हूँ  


Wednesday, September 12, 2018

ग़ज़ल

ए  मेरे मालिक कलम से इल्तिजा लिखती हूँ मैं
ए नए फूलों तुम्हे दिल से दुआ लिखती हूँ मैं
देखती हूँ जब ज़मीं पर कोई आफ़त  आएगी
दुश्मनों के दर पे भी अपना पता लिखती हूँ मैं
बस गयी है जब से मेरे दिल में सूरत आपकी
उस घडी से अपने दिल को आइना लिखती हूँ मैं
मोतियों से तोलती हूँ अपने हर इक  शेर को
आँसुओं से ज़िन्दगी का माज़रा लिखती हूँ मैं
 ख़ून आँखों से छलक पड़ता है अपने आप ही
जब किसी काग़ज़ पर अपना तजुर्बा लिखती हूँ मै
थोड़ा रोने से उतर जाता है मन का बोझ भी
इसलिए तो अपनी आँखों को घटा लिखती हूँ मैं
कैसे अपने आप आ जाती है लफ़्ज़ों में मिठास
सोनी ज़हरे इश्क़ का जब ज़ायक़ा लिखती हूँ मैं


मेरी ग़ज़ल मेरा आइना।  मैं भी दुआ करूँ आप भी दुआ करें। 

ग़ज़ल

जो सोचा है वही पुरकैफ़ मंज़र बन के रह जाये
मेरी ख़्वाहिश है वो मेरा मुक़द्दर बन के रह जाये

मज़ा जब है के तेरे  हिज़्र में मेरा हरेक आँसू
निकलकर आँख से पलकों  पे गौहर बन के रह जाये

मैं जिसको पूजती रहती हूँ अपने दिल के मंदिर में
वो मनमोहन कहीं मेरा ना पत्थर बन के रह जाये

दुआ करती हूँ रोजो शब ऐ  मेरी  जान  के मालिक
जिसे कहते हैं घर ऐसा मेरा घर बन के रह  जाये

जिसे जूड़े में  मैं अपने सजा लूँ ऐ मेरे मालिक
तमन्ना है वो इक ऐसा गुलेतर बन के रह जाये



ये और बात के आँसू  बहा बहा के जिए
चिराग़ याद के तेरी मगर जला के जिए

हम अपने बाद की नस्लों को याद आएँगे
हम अपने कांधों पे अपनी सलीब उठा के जिए

उदासियों ने तो अब आके हमको घेरा है
बहुत दिनों तो यहाँ हम भी मुस्कुरा के जिए

तमाम शहर में हैं नफ़रतों के अँधियारे
मगर ख़ुलूस की हम मशअलें जला के जिए

दिखाई देने लगे अक्स संगबारों के
हम अपने आप को यूँ आइना बना के जिए

अजीब लोग थे सोनी जो क़द की हसरत में
तमाम उम्र ही बैसाखियाँ लगा के जिए



ग़ज़ल

जितनी नज़दीक उसके गयी ज़िन्दगी
उतनी ही दूर उससे हुई  ज़िन्दगी

कोई बादल न गुज़रा बरसता हुआ
एक सूखी नदी ही रही ज़िन्दगी

मैं तो आवाज़ देकर जगाती रही
मौत सी नींद  सोती रही ज़िन्दगी

साक़िए मयक़दा मयकशी के लिए
कम मिली कम मिली कम मिली ज़िन्दगी

पास आकर कभी और कभी दूर से
मुझको आवाज़ देती रही ज़िन्दगी

चाँद  तारों से सोनी शबे हिज़्र में
मांगती  ही रही  रौशनी ज़िन्दगी

"चाँद पागल  गया " मेरे पहले ग़ज़ल संग्रह  से है मेरी ज़िन्दगी का  ये एक छोटा सा आइना। अगर आप देखेंगे तो शायद ये आपको अपना आइना लगे. बहुत बहुत शुक्रिया.



Tuesday, September 11, 2018

जाते जाते छोड़ गए तुम आँखों में बरसात
पिया जी भीगूँ मैं दिन रात ...... पियाजी

अंसुवन से ये भीगा मौसम मन में आग लगाए
मन तुम्हारे दर्शन को तड़पे कौन इसे समझाए
इस ज़िद्दी बालक ने दे दी साजन मुझको मात ...... पियाजी भीगूँ  मैं .......

मेरे मुख पर झूलती लट  को वो तुम्हरा सुलझाना
बागीचे में देख अकेले बारम्बार सताना
रह रह कर अब याद आती हैं तुम्हारी हर इक बात ......पियाजी  भीगूँ  मैं......

साँझ ढले ही खुल जाते हैं यादों के सब द्वारे
ठंडी हवाएं भर देती हैं नस नस में अंगारे
होते हैं महसूस बदन पर तुम्हरे चंचल हाथ ..... पियाजी भीगूँ मैं.......

पायल की छन छन भी चुप है चूड़ी भी न खनके
कैसे नाचे कान  के बाले कैसे बिंदिया चमके
मांग रहे हैं ज़ेवर गहने फिर से तुम्हारा साथ ...... पियाजी भीगूँ  मैं.......

बस्ती भर में बन गयी मेरे मन की पीर कहानी
तुम मेरे मधुबन के कान्हा मैं तुम्हारी दीवानी
जपती हूँ मैं नाम तुम्हारा भूल गयी हर बात पियाजी। ..... भीगूँ  मैं..... 

Monday, September 10, 2018

ए चराग़े वफ़ा क्या करूँ क्या करूँ
चल रही है हवा क्या करूँ क्या करूँ

मिल न पायी कहीं पर मुझे आज तक
ज़ख्मे दिल की दवा क्या करूँ क्या करूँ

दर्दे फुरक़त मेरी रूह तक आ गया
ए मसीहा बता क्या करूँ क्या करूँ

आ गया आँख  से आज दामन तलक
अश्क़ का सिलसिला क्या करूँ क्या करूँ

आज सांसें मेरी मुझसे करने लगी
ज़िन्दगी का गिला क्या करूँ क्या करूँ

अश्क़ रुकते नहीं आह थमती नहीं
ए  ग़मे दिल बता क्या करूँ क्या करूँ