Friday, October 4, 2019

ग़ज़ल

यादे माज़ी मुझे इकाई दे
मेरे अहसास को तनहाई दे
तोड़ कर  मुझसे ख़ून का रिश्ता
मेरा हिस्सा न, मुझको भाई दे
अपना परबत मुझे बनना है
एक इक करके मुझको राई दे
मां ने बोला परीशां बेटे से
बाप के हाथ में कमाई दे
सर्द मौसम है बेमकानों को
धूप की शक्ल में रज़ाई दे
ए शबे हिज़्र जाग जाना तू
उसकी आवाज़ जब सुनाई दे

Saturday, September 14, 2019

ग़ज़ल

बहार आ के न जाने किधर से गुज़री है
खिज़ा हमारे तो दीवारो दर से गुज़री है।
किए पे अपने पशेमॉ नज़र वो आई हमें।
अभी अभी जो शराफ़त इधर से गुज़री है।
ये और बात के हम पर असर न कर पाई,
हवा ए गर्म हमारे भी घर से गुज़री है।
हमारे पास घड़ी भर को बैठिए साहिब,
हमारी सोच किताबी असर से गुज़री है।
अनीता पुरखों की टोली की बात क्या कहिए,
जिधर

Sunday, July 21, 2019

ग़ज़ल

मुझ परीशान की आंखों की तरफ क्या देखें/
लोग सूखी हुई नदियों की तरफ़ क्या देखें।
ज़िद में रोते हुए बच्चे की तरफ़ क्या देखें/
जेब खाली है खिलोनों की तरफ़ क्या देखें।
दश्तो सेहरा की तरह ज़ेहन में वीरानी है/
दौड़ती भागती सड़कों की तरफ़ क्या देखें।
 सुब्ह के नाम पे आए हैं अंधेरे ओढ़े/
ऐसे बेनूर उजालों की तरफ़ क्या देखें।
ग़ैर का हो गया वो ग़ैर का होना था उसे
हम हथेली की लकीरों की तरफ़ क्या देखें।
रहबरों की तरह मिलते हैं जहां पर रहजन/
उन घने पेड़ों के रस्तों की तरफ़ क्या देखें।

Saturday, June 1, 2019

ग़ज़ल

हम अगर ज़हरे फ़ुरक़त को पीते नहीं
ज़िन्दगी तुझको फुरसत में जीते नहीं
आज घर के चरागों से पूछेंगे हम
क्यूं अंधेरे की चादर को सीते नहीं
जैसे इल्हाम हो उनको इजलास का
दूध मांओं का बच्चे जो पीते नहीं
तब्सरा कर रहे हैं मोहब्बत पे वो
जो मुहब्बत से इक पल भी जीते नहीं
रूठने पर तिरे वक्त थम सा गया
रात बीती नहीं दिन भी बीते नहीं
होश वालों को करने दे बख़यागरी
सोनी दीवाने दामन को सीते नहीं

Wednesday, May 29, 2019

ग़ज़ल

ये हवा क्या करे वो घटा क्या करे
घाव नभ ने दिए हैं धरा क्या करे
भूख और प्यास जिस का मुक़द्दर हुए
आबोदाने का फिर वो गिला क्या करे
जब मुसाफ़िर ही कश्ती डुबोने लगे
ऐसी मुश्किल में वो नाख़ुदा क्या करे
पेड़ ने झूमने की अदा छोड़ दी
प्यार के गीत गाकर हवा क्या करे
सोनी रिश्तों में दीवार उठ जाए तो
घर के आंगन का बूढ़ा दिया क्या करे

Saturday, May 25, 2019

ग़ज़ल

अंदाज़ ज़िन्दगी का बदलने से क्या मिला
ए दोस्त तेरे पहलू में ढलने से क्या मिला
मिट्टी के वो शरीर तो मिट्टी को पा गए
चन्दन को उन चिताओं में जलने से क्या मिला
सायों में भी वो धूप का माहौल ही रहा
छाओं में हमको पेड़ की चलने से क्या मिला
पत्थर मिसाल शख़्स था पत्थर का ही रहा
कल रात हमको उसके पिघलने से क्या मिला
आवारगी से पांव के छालों ने पूछा है
घर छोड़ कर सड़क पे निकलने से क्या मिला
ए इंतज़ारे वस्ल मिरी सुब्ह को बता
कमरे में रातभर यूं टहलने से क्या मिला

Saturday, May 11, 2019

ग़ज़ल

सुबह की गोदड़ी में छुपाए रखे
रात के ख़्वाब दिन में सजाए रखे
रंजो ग़म दर्दे दिल और आहों फ़ुग़ाँ
बोझ हमने भी कितने उठाए रखे
रिश्ते नाते सभी दे रहे थे धुआं
उन चराग़ों को फिर भी जलाये रखे
कौन थे जिनको दुःख बांटते हम भला
दोस्त जो  भी थे वो सब भुलाये रखे
बारिशे अश्क़  से मिट  न जाये कहीं
वो जो काग़ज़ पे चेहरे बनाये रखे
काम आते हैं सोनी बुरे वक्त में
इसलिए खोटे सिक्के बचाये रखे 

Friday, April 19, 2019

मेरी राहों से कांटे हटाते रहे
लोग एहसान लेकिन जताते रहे
बन्द होंटों से मैं मुस्कुराती रही
वो मुहब्बत से मुझको मनाते रहे
आज के रंग भरकर निगाहों में हम
कल की तस्वीर दिलकश बनाते रहे
लोग भरकर निगाहों में चहरा मिरा
हाथ ज्योतिष को अपना दिखाते रहे
अपने मतलब की ख़ातिर हमेशा ही वो
झूठी कसमें मेरे सर की खाते रहे
लोग पाताल से पानी लेे आए हैं
हम पतंगों के पेंच लड़ाते रहे

Wednesday, January 16, 2019

जिनकी नज़रों में अजनबी से हैं

जिनकी नज़रों में अजनबी से हैं
 देखने में वो आदमी से हैं

बात जो कर रहे हैं  रहबर की
मुतमइन क्या वो रहबरी से हैं

महके महके  ये सिलसिले गुल के
क़ाबिले दीद  ताज़गी  से हैं

जब से गर्दिश ने हमको घेरा है
शहर में अपने अजनबी से हैं

अहले दिल की नज़र में  हम अब भी
खूबसूरत हसीं परी से हैं

जो के ख़ुर्शीदे इश्क से फूटी
हम मुनव्वर वो रौशनी से हैं

हम तो  गुमनाम  दोस्ती से हैं
लोग मशहूर दुश्मनी से हैं 

उसके जलवे जहाँ बिखरते हैं

उसके जलवे जहाँ बिखरते हैं
चलो हम भी वहां ठहरते हैं

उनके लहजे में फूल झरते हैं
वो जो उर्दू में बात करते हैं

उसके दीवाने उसके कूंचे से
नाचते झूमते गुज़रते हैं

दुज निगाही से देखने वाले
अब इशारों में बात करते हैं

ख़्वाब बिखरे हैं इस तरह जैसे
आईने टूट  कर  बिखरते हैं

झील सी आँख में अनीता की
डूबने वाले कब उबरते हैं


माँ बुलाती है

जब कभी याद उस की आती है
नींद अश्कों में डूब जाती है

बे नियाज़ी कुम्हार की मुझको
चाक पे रख के भूल जाती है

दिल की दुनिया उजाड़ कर क़िस्मत
शोख़ बच्ची सी खिलखिलाती है

हिचकियाँ नीम शब में चलने से
हसरते वस्ल सर उठाती है

जब भी बचपन में लौटती  हूँ मैं
ऐसा लगता है माँ बुलाती है

क्या करूँ तर्के तअल्लुक़ का गिला
डाल जामुन की टूट जाती है

सोनी आवारह  वो नज़र तौबा
आते जाते मुझे सताती है

अहसान भुला देता है.

ज़ख़्म मरहम का जब अहसान भुला देता है.
दरे अहसास से फिर दर्द सदा देता है

चलने लगती है जो आवारह हवा की तरह
ऐसी कश्ती  को तो दरिया भी सजा देता है

अहले जर्मन की वो तारीख़ उठा कर देखो
जज़्बए बाहमी  दीवार गिरा देता है

ऐसे कमज़र्फ के एहसां से बचाना या रब
सरे बाज़ार  जो औक़ात बता देता है

दाब कर पांव जो माँ बाप के ख़ुश होते हैं
आसमां ऐसे ही बच्चों को सिला देता है

सोनी इस तर्केतअल्लुक़ से बचाना खुद को
ये मरज़ मौत की तस्वीर बना देता है