Tuesday, August 21, 2018

ग़ज़ल

सोचती हूँ झुकाकर नज़र देख लूँ
कितने गहरे हैं ज़ख़्मे जिगर देख लूँ

लाख हिम्मत नहीं है मगर देख लूँ
उसके चेहरे को मैं एक नज़र देख लूँ

हो इजाज़त तो मैं आपकी आँख में
अपनी तस्वीर को एक नज़र देख लूँ

मेरी पलकों पे किरनें  चमकने लगें
बंद आँखों से उसको अगर देख लूँ

इससे पहले के सोनी वो मुझसे मिलें
एहतियातन इधर और उधर देख लूँ


Monday, August 13, 2018

भरे घर का भी आँगन काटता है
न हो साजन तो दर्पण काटता है

फुआरें आग बरसाती हैं तन पर
अकेलेपन में सावन काटता है

तुम्हारी याद  में जलती है बिंदिया
कलाई को ये कंगन काटता है

वो बच्चा जल्द हो जाता है बूढा
ग़रीबी में  जो बचपन काटता है

कन्हाई की अगर बंसी न बाजे
तो फिर कान्हा को मधुबन काटता है

बसी है इस जगह पुरखों की यादें
पुराने घर का आँगन काटता है

सुकूने  दिल अगर खो जाये सोनी
तो धन वालों को भी धन काटता है

Wednesday, August 8, 2018

ये है खाना खज़ाना कार्यक्रम कविता का,
आज बनेगा हमारी मन की रसोई में एक मसालेदार गीत
सामग्री के लिए काव्यकला  के डब्बे डिबिया निकालिये और लीजिये
 एक  चाँद एक चांदनी, कुछ राग कुछ रागिनी
थोड़ी सी जवानी वो भी दीवानी
एक उम्र ज़रा सी कच्ची पर प्रीत बिलकुल सच्ची
तेज़ धड़कन धीमी सी आस एक पारो एक देवदास
 बरसते दो नयन एक गगन, एक समाज अपने में मगन
एक कली और कुछ फूल, एक भंवरा और बाकी  शूल
थोड़ी सी नींद बहुत सारे सपने, दुनिया भर के दुश्मन दो चार अपने
छोटा सा दिन लम्बी सी रात, पुकारती कोयल और पपीहे की बात
थोड़ी सी बेवफ़ाई और ताज़ा बहाना
पल भर की रूठन और घड़ी भर का मनाना
 अम्बुआ की डाल  सावन के झूले ज़ुल्फ़ों की छाँव में रास्ता जो भूले
छनकती चूड़ियां झनकती पायल,  एक  बीमार एक घायल
थोड़ी सी हंसी बेहिसाब रोना, पाना काम ज़्यादा खोना
झूठ मूठ की झड़प और और सचमुच की तड़प
ढेर सारे आंसू ठंडी सी आह, कोमल क़दम काँटों की राह
कुछ भूली बिसरी बातें कुछ खट्टी  मीठी याद
  इक लैला मजनूं और  इक शीरी फ़रहाद
प्यार की दुश्मन ये  ही दुनिया और अपनों के सवाल
मुझ जैसी इक "सोनी" हो और इक तुझसा महवाल
इक उफ़नाती नदिया और एक हो कच्चा घड़ा
प्यार की खातिर  मर जाने का जज़्बा सबसे बड़ा
पल भर का  मिलन और जीवन  भर  की जुदाई
         एक हो  ईश्वर या हो एक ख़ुदाई
बस इतनी ही चीज़ें पड़ती हैं गीत में
इन्हें कल्पना के किचन में सजाइये
काग़ज़  की कड़ाही में  ग़मों का घी डालकर अरमानों की आग में तपाइये
जब धुँआ दिल से  उठने लगे तो एक एक कर सारे मसाले छौंक दीजिये.
कलम की कलछी से ख़ूब मिलाइये,  बना के कहीं भूल न जाइये ,
 अच्छे शीर्षक से सजा के, दो दो  चार चार की लाइनों में परोसिये
लीजिये गरमा गरम लाजवाब गीत तैयार है।
यहीं  खाएंगे या घर ले जायेंगे




Friday, August 3, 2018

तुम एक मौसम ही तो थे (कविता)

तुम्हारे आते ही मुरझाये फूल खिल उठते थे
तन में सोया मन जाग  जाता था
मन की बगिया में सुरभित बयार अटखेलियां करने लगती थीं
तन मन में उमंग की रंगोलियां सजने लगती थीं
और मैं समझती थी कि बसंत की बहार आ गयी
तुम्हारे ज़रा से स्पर्श से वर्षों की जमी बर्फ
 पल भर में पिघलने लगती थी
रात  रानी भी  दिन में ही महक जाती थी
मन के प्यासे काले बादल अपनी ही  खायी
कसम तोड़ कर खुद पर ही बरसने लगते थे
और मैं समझती थी की सुहानी वर्षा ऋतु आ गयी
तुम्हारे ज़रा से नाराज़ होते ही तन मन रेगिस्तान हो उठता था
गर्म हवाएँ सायं सायं की ध्वनि से
उजड़े जीवन का करुण संगीत सुनाने लगती थीं
मन जलता हुआ अंगार और तन उसपर रखी
 गर्म खाली हांड़ी की तरह तड़क उठता था
और मैं समझती थी की यही भीषण ग्रीष्म ऋतु है महा दुर्भिक्ष है
इसी तरह तुम्हारी दी हुई ऋतुओं से
 मेरी उम्र गुज़रती रही और तुमने गुज़रने दी
कितने सावन बीते कितने बसंत रंगहीन हुए
कितने बदल बरसे कितनी आग बरसी पता ही नहीं चला
 मैं भीगती सूखती रही मैं गुलाल उड़ाती रही मैं रस बरसाती रही
 मैं तड़पती भी  रही मैं उजड़ती ही रही
तुम्हारे सावन थे तुम्हारी  बसंत थी
 तुम्ही आग थे तुम्ही बादलों की बारिश भी और मैं धरती
जब तक तुमने चाहा ऋतुओं का आना जाना चलता  रहा
और मैं सब समझते हुए भी  इसे अपने  प्रति  तुम्हारा अपना प्रेम समझती रही
मगर तुम सदा के लिए कभी  मेरे नहीं हुए
तुम तो सिर्फ एक  मौसम थे और एक  मौसम ही रहे।
 बार बार आते रहे जाने के लिए
 हर  बार, न जाने कितनी बार
तुम एक मौसम ही तो थे