Monday, October 15, 2018

ग़ज़ल - दर्द की रात को तुमने कभी घटते देखा

फूल के जिस्म से तितली को लिपटते देखा 
रंग और रूप को आपस में सिमटते देखा 

याद आया है मुझे वस्ल का आलम अपना 
जब भी लहरों को किनारों से लिपटते देखा 

दर्द के मारे हुए लोगों से मैं पूछती हूँ 
दर्द की रात को तुमने कभी घटते देखा 

आदमियत ने मेरी खून के आंसू रोये 
जब भी मज़्लूम पे ज़ालिम को झपटते देखा 

अबके भी नाम थे सोहकारों के फसलों पे लिखे 
अब के भी फ़सलों को सोहकारों में बंटते देखा 

जिनके हाथों में रहा अम्न का परचम सोनी 
उनके हाथों ही से इंसान को कटते देखा 


ग़ज़ल - आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक

शाम से इक इनायत की नज़र होने तक 
मुंतज़िर तेरे रहे हम तो सहर होने तक 

मुख़्तसर पल है जिसे ज़ीस्त कहा जाता है 
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक 

लज़्ज़ते इश्क़ की इक शाख़ें गुलेतर की तरह 
 परवरिश कीजियेगा दर्दे जिगर होने तक 

हिज़्र की शब में तेरी याद बसा कर दिल में 
शम्अ से जलते रहे हम तो सहर होने तक 

ए ग़मे दिल मेरी ठहरी हुई सांसों का इलाज 
तू ही कुछ करदे मसीहा को ख़बर होने तक 

सोचती रहती हूँ सोनी मैं यही शामों सहर 
राह  दुश्वार ना  हो ज़ादे सफ़र होने तक 

ग़ज़ल - अब मैं तेरे वजूद की पुख़्ता असास हूँ

ज़ीनत तेरे बदन की हूँ तेरा लिबास हूँ 
अब मैं तेरे वजूद की पुख़्ता असास हूँ 

माना के रात दिन मैं तेरे आस पास हूँ 
लेकिन तेरे सुलूक़ से हर पल उदास हूँ 

मेहरूम तेरे प्यास की लज़्ज़त से जो रहा 
मैं ही वो बदनसीब छलकता गिलास हूँ 

रंगीनिये जहान से महरूम मैं रही 
चरखे के पास जो न गया वो कपास हूँ 

तर्के ताल्लुक़ात के बारे में क्या कहूँ 
गिरते हुए मकान की सोनी असास हूँ  

ग़ज़ल - गुमां से भी नाज़ुक यकीं हम रहे थे

गुलाबों से बढ़कर हसीं हम रहे थे 
तुम्हारी नज़र में हमी हम रहे थे 

कभी याद बनकर कहीं दर्द बनकर 
तुम्हारे जिगर में कहीं हम रहे थे 

तुझे कुछ ख़बर है तेरी अंजुमन में 
गुमां से भी नाज़ुक यकीं हम रहे थे 

मुसाफ़िर जहाँ पर ठहरते नहीं हैं 
वही एक तपती ज़मी हम रहे थे 

जो ख़ाली पड़ा है सराये की सूरत 
उसी दिल के अंदर कहीं हम रहे थे 

ग़ज़ल - मेरी रातों का दो हिसाब मुझे

बेवफ़ा के सिवा जनाब मुझे 
और क्या देते तुम ख़िताब मुझे 

तुम वो ही हो जो रोज़ कहते थे 
एक खिलता हुआ गुलाब मुझे 

तुम समझते रहे हमेशा ही 
एक बोसीदा सी किताब मुझे 

हाथ रखिये न मेरे होंठों पर 
बोलने दीजिये जनाब मुझे 

तुमने ज़हमत न की सहारे की 
घेरे रहते थे जब अजाब मुझे 

तुम तो लिक्खे पढ़े से हो साहिब 
मेरी रातों का दो हिसाब मुझे 

होश बाक़ी नहीं रहे सोनी 
इस कदर अब पिला शराब मुझे 

ग़ज़ल - हरेक इंसान ख़ुशबू दे रहा है

तुम्हारा ध्यान ख़ुशबू दे रहा है 
यही लौबान ख़ुशबू दे रहा है 

करो पेहचान यारी दुश्मनी की 
हरेक इंसान ख़ुशबू दे रहा है 

गुलाबों से खिले हैं घाव दिल से 
तिरा अहसान ख़ुशबू दे रहा है 

महक पहुँची है उन तक मेरे दिल की 
मिरा अरमान ख़ुशबू दे रहा है 

मुहब्बत की वफ़ा की दोस्ती की 
ये हिंदुस्तान ख़ुशबू दे रहा है 

करप्शन है बहुत  लेकिन दिलों मैं 
अभी ईमान ख़ुशबू दे रहा है ग़ज़ल 

ग़ज़ल - चेहरे को मेरे मीर का दीवान मान लो

तुमको ख़ुदा बनाया मेरी जान मानलो 
कुछ तो मेरी निगाह का अहसान मान लो 

दुनिया की ये हवस न सताए तुम्हे कभी 
गर ख़ुद को चंद रोज़ का मेहमान मान लो 

क़िरदार पर वो दाग़ हैं जीना मुहाल है 
फिर भी ये ज़िद है साहिबे ईमान मान लाओ 

अपनी उदासियोंकी नुमाइश मैं क्या करूँ 
चेहरे को मेरे मीर का दीवान मान  लो 

इस मुल्क़ की भलाई फ़क़त एकता में है 
फ़िरक़ापरस्तों वक्त का फ़रमान मान लो 

झगड़े ये धर्म ज़ात के हो जाएँ तय अभी 
तुम सबको अपने जैसा जो इंसान मान लो 

सोनी चमन में फूल मयस्सर नहीं अगर 
ज़ख़्मों को ही बहार का वरदान मान लो 

ग़ज़ल - लिक्खी हैं मेरे दिल पे तेरी बातें बहुत सीं

याद आयीं किसी से जो मुलाक़ातें  बहुत सीं  
गुज़री मेरी आँखों से भी बरसातें बहुत सीं 

बैठूं जो सुनाने तो फिर इक उम्र गुज़र जाये 
लिक्खी हैं मेरे दिल पे तेरी बातें बहुत सीं  

ए चाँद ठहर रात के तू साथ ना जाना 
करनी है तेरे साथ अभी बातें बहुत सीं 

 कुछ दिन की जुदाई है सदा को नहीं बिछड़े 
बाक़ी हैं अभी अपनी मुलाक़ातें  बहुत सीं 

बाबा मेरा मुफ़लिस था  मैं बैठी रही घर में 
आयीं तो मेरे घर पे भी बारातें  बहुत सीं 

उन जागती रातों को भुलाऊँगी मैं कैसे 
गुज़री हैं तेरे बिन जो मेरी  रातें बहुत सीं 

लौट आएंगे परदेस से घर अबके वो सोनी
गुज़रेंगी अभी साथ में  बरसातें बहुत सीं  
  

ग़ज़ल - मैं ए मालिक किनारा चाहती हूँ

क़रीब आ प्यार का इज़हार कर दे 
मुझे छू ले  मुझे  गुलज़ार  कर दे 

मैं ए मालिक किनारा चाहती हूँ 
मेरे कच्चे घड़े  को पार कर दे 

चमकती है मेरे बालों में चांदी 
बहुत मुमकिन है वो इंकार कर दे 

अभी तक ख़्वाब  हूँ तेरी नज़र का 
मेरे मंज़र मुझे साकार कर दे 

वो जिसमे प्यार की खबरें  छपी हों 
मेरे चेहरे को वो अख़बार कर दे 

दुआ है लीडरों के हक़ में भगवन 
इन्हें  थोड़ा सा बा किरदार कर दे 

हमें  ख़ुश्बू बना दे ए  रचेता 
ये दुनिया बे दरो दीवार कर दे 

उदासी बन गयी मेरा  मुक़द्दर 
कोई आकर मेरा शृंगार कर दे 

मुहब्बत की वसीयत लिखने वाले 
मुझे भी इसमें कुछ हक़दार कर दे 

परींदे प्यार के कुछ उड़ रहे हैं 
ख़ुदा जाने वो कब लाचार कर दे 

सदा लड़ना अनीता उस हवा से 
जो सारे शहर को बीमार कर दे