Thursday, August 14, 2008

कविता

जिसने चाहा क़दम रख लिये
धूल उड़ी कांटे बिछे
लोग आते रहे जाते रहे
मंज़िल के निशाँ दिखाई ही नहीं दिए
ज़िन्दगी फ़िर जैसे एक  लम्बी राह हो गयी.
खूब करीने से सजा के रख्खा हाथों में, देर तक, रंग आने तक
और फ़िर खुरच खुरच कर गिरा दिया
ज़िन्दगी फ़िर जैसे हिना हो गयी.
तमाम रात सीने पर रख रख के पढ़ते रहे,
सोने के वरक थे चांदी की लिखावट,शब्द शब्द मोती
एक एक कर सारे पन्ने पलट गये
सुबह हुई किताब बन्द हो गयी
ज़िन्दगी फ़िर जैसे कहानी हो गयी.
हर धागे में एक मुराद बन्धी थी
हर गांठ पर एक नाम लिखा था
कितने सारे बन्धन बन्धे थे
सब मियादी थे,
मियाद खत्म होती रही बन्धन खुलते रहे
पर हर मुराद अधूरी ही रही
ज़िन्दगी फ़िर जैसे किसी मन्दिर की घंटी हो गयी.