सोच जब भी सफ़र में रहती है
तेरी सूरत नज़र में रहती है
जब कभी उस को सोचती हूं मैं
एक खु़श्बू सी घर में रह्ती है
बात वो जिसमे तन्ज़ की बू हो
फ़ांस बनकर जिगर में रहती है
ये बुज़ुरगों का कौल है साहिब
कामियाबी हुनर में रहती है
रूह मेरी तो आज कल सोनी
दर्दे दिल के असर में रह्ती है
Sunday, February 17, 2008
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