मेरी जानिब जो आ रही है हवा
उसका पैगा़म ला रही है हवा
देखकर रौशनी चरागो़ की
किस क़दर सर उठा रही है हवा
थपकियां दे के दिल के ज़ख्मों को
शाम ही से सुला रही है हवा
एक मुद्दत से हम चरागों को
ज़ौर अपना दिखा रही है हवा
क्या वो जाने बहार आता है
घर में खुशबु सी ला रही है हवा
तेज़ पाकर चराग़ की लौ को
अपना मुंह ले के जा रही है हवा
किस की खा़तिर ये शाम ढलने पर
बिस्तरे गुल बिछा रही है हवा
हम तो पहले ही से परेशां हैं
और तू क्यूं सता रही है हवा
आज आंधी के रूप में सोनी
अपना चेहरा दिखा रही है हवा
Sunday, February 17, 2008
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