Sunday, October 14, 2018

ग़ज़ल सोनी सब इंसानों की है इक जाती

पूछ रही है दीपक से हंस कर बाती 
हमको क्यूँ रातों को नींद नहीं आती 

उसके आगे मैं यूँ घबरा जाती हूँ 
जैसे शहर मैं घबरा जाये देहाती 

मेरी वफ़ाएं अब भी हरी भरी सी हैं 
सूख गयी है घास की जो थी बरसाती 

जीवन भर रोयेगी मुफ़लिस की बेटी 
घर तक आकर लौट गए हैं बाराती 

आस की हांडी  तोड़ दी माँ ने तंग आकर 
झूठ से कब तक भूखे बच्चे बहलाती 

मुल्कों मुल्कों चोंच पसारे फिरती है 
सोने की चिड़िया भी बन गयी ख़ैराती 

हमने उनको बाँट दिया है खानों में 
सोनी सब इंसानों की है इक जाती  ग़ज़ल 

No comments: