पूछ रही है दीपक से हंस कर बाती
हमको क्यूँ रातों को नींद नहीं आती
उसके आगे मैं यूँ घबरा जाती हूँ
जैसे शहर मैं घबरा जाये देहाती
मेरी वफ़ाएं अब भी हरी भरी सी हैं
सूख गयी है घास की जो थी बरसाती
जीवन भर रोयेगी मुफ़लिस की बेटी
घर तक आकर लौट गए हैं बाराती
आस की हांडी तोड़ दी माँ ने तंग आकर
झूठ से कब तक भूखे बच्चे बहलाती
मुल्कों मुल्कों चोंच पसारे फिरती है
सोने की चिड़िया भी बन गयी ख़ैराती
हमने उनको बाँट दिया है खानों में
सोनी सब इंसानों की है इक जाती ग़ज़ल
हमको क्यूँ रातों को नींद नहीं आती
उसके आगे मैं यूँ घबरा जाती हूँ
जैसे शहर मैं घबरा जाये देहाती
मेरी वफ़ाएं अब भी हरी भरी सी हैं
सूख गयी है घास की जो थी बरसाती
जीवन भर रोयेगी मुफ़लिस की बेटी
घर तक आकर लौट गए हैं बाराती
आस की हांडी तोड़ दी माँ ने तंग आकर
झूठ से कब तक भूखे बच्चे बहलाती
मुल्कों मुल्कों चोंच पसारे फिरती है
सोने की चिड़िया भी बन गयी ख़ैराती
हमने उनको बाँट दिया है खानों में
सोनी सब इंसानों की है इक जाती ग़ज़ल
No comments:
Post a Comment