मैं कैसे अपनी कहानी की इप्तिदा करती
तुम्हें न मांगती रब से तो और क्या करती
मेरी हया पे तुम्हीं कल को तब्सरा करते
जो लड़की होके भी मैं अर्जे मुद्दुआ करती
मैं सच कहूं मुझे तारीफ़ अच्छी लगती है
वो चांद कहते मुझे और मैं सुना करती
दिनों के बाद वो लौटा तो ख़ूब प्यार किया
अब ऐसे प्यार के मौसम में क्या गिला करती
बना के फूल वो ले जाता मुझको दफ़्तर में
तमाम दिन भी उसे खुशबुएं दिया करती
अब उसका काम है मुझको मना के ले जाना
क्षमा मैं मांगती उससे अगर ख़ता करती
ये फूल मेरे लिए ही तो रोज़ खिलते हैं
मैं इनसे प्यार न करती तो और क्या करती
Wednesday, September 26, 2007
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