Friday, September 14, 2007

पैगामे वस्ल



इक एक कर के बुझ गए उम्मीद के दिये
वो माँ हूँ जिसकी कोख में बच्चे नहीं जिये

पैगामे वस्ल जब भी तिरी आंख ने दिये
बिखरी है मेरी जुल्फ तेरी शाम के लिये

किरणें निकल रही थीं पसीने की बूँद से
पहलू में उसके बैठ के दो जाम क्या पिये

जब जब भी उसके आने की दिल को खबर मिली
आंखों में इंतज़ार के जलने लगे दिये

उम्मीद और बीम के दामन को थाम कर
अनजान एक शख्स के हम साथ चल दिये

1 comment:

Anonymous said...

yes. luv this post!