दिल की नाज़ुक रगों से गुज़रने लगा
दर्द तो रूह में अब उतरने लगा
चांद अपना सफ़र खत्म करने लगा
चांदनी रात का ज़ख्म भरने लगा
मेरा चेहरा गिला मुझसे करने लगा
आइना टूट कर जब बिखरने लगा
मेरी आवाज़ पर जो ठहरता न था
मेरी आवाज़ पर वो ठहरने लगा
मैं चरागों के जैसी दहलने लगी
वो हवाओं के जैसा गुज़रने लगा
चाप क़दमों की जब भी सुनाई पडी
उसका चेहरा नज़र से गुज़रने लगा
Sunday, September 16, 2007
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