हम सफ़र अपना रुख मोड़ कर चल दिये
मुझको दोराहे पर छोड़ कर चल दिये
मेरे चेहरे से थी क्या शिक़ायत कोई
आइना आप जो तोड़ कर चल दिये
खोखले बे समर पेड़ की सम्त ही
बदहवासी में हम दौड़ कर चल दिये
ज़िन्दगानी की जो कश्मकश में रहे
ज़िन्दगानी को वो छोड़ कर चल दिये
ज़लज़ले जब कभी भी ज़मीं से उठे
हम ग़रीबों के घर तोड़ कर चल दिये
Thursday, September 27, 2007
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