Saturday, December 27, 2008

ये रिश्ते

ये रिश्ते
ये रिश्ते लगते हैं मुझे रंग बिरंगे की़मती कपड़ों के छोटे छोटे टुकडे़,
खूब सुहाने खूब रेशमी खूब मखमली/ हर टुकडा़ दिल से लगाने को जी चाहे
एक को छोडूं दूसरा उठाउं,दूसरा छोडूं तीसरा,लेकिन हर टुकडा़
लगता है मुझे खूब काम का,
रोज़ थैली खोल कर उन्हें देखती हूं,खुश होती हूं,योजना बनाती हूं
लेकिन ये चिन्दे इतने छोटे हैं कि मैं इन्हें कभी किसी उपयोग में नही ले सकी.
सालों हो गये मुझे ये खूबसूरत की़मती लेकिन अनुपयोगी चिन्दों को सम्भालते सम्भालते,
अभी तक एक भी चिन्दा मेरे कुछ काम न आया.
जोड़ तोड़ कर चादर बनी फ़िर भी छोटी
नीचे खींचू तो सिर उघड़ता है,
सर छुपाउं तो अपनी ही जांघ उघड़ती है

2 comments:

vijay kumar sappatti said...

anita ji ,

kavita bahut sundar ban padi hai .. aur bhaavpoorn bhi

badhai..

pls visit my blog for new poems.
Vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com

Anita Soni - Kaviyatri, Shayara said...

विजयजी
आपने कविता के भावों को समझा,आपका बहुत आभार और धन्यवाद.
अनीता